Natasha

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राजा की रानी

उसी रात को आरा छोड़ दिया। एक कम उम्र का डॉक्टर अनेक तरह की औषधियाँ लेकर हम लोगों को पटना तक पहुँचाने के लिए साथ गया।

पटना पहुँचकर बारह-तेरह दिन के भीतर ही एक तरह से मैं चंगा हो गया। एक दिन सुबह अकेला प्यारी के मकान के प्रत्येक कमरे में घूम आया। उसका माल-असबाब देखकर मैं कुछ विस्मित हुआ। मैंने इसके पहले वैसा देखा न हो सो बात नहीं थी। चीजें सब अच्छी और कीमती थीं, यह ठीक है; परन्तु इस मारवाड़ी मुहल्ले के बीच, इन सब धनी और अल्पशिक्षित शौकीन मनुष्यों के संसर्ग में, इतनी साधारण चीजों से वह सन्तुष्ट कैसे रहती थी? इसके पहले मैंने इस तरह के जितने घर द्वार देखे थे इनके साथ कहीं किसी भी अंश में इसकी समानता नहीं थी। उनमें अन्दर घुसते ही विचार होता था कि इनमें मनुष्य क्षण-भर भी रहते कैसे होगा? उन मकानों के झाड़-फानूस, चित्र दिवालगीरी, आईना और ग्लास-केसों में आनन्द के बदले आशंका ही उत्पन्न होती थी- सहज श्वास-प्रश्वास तक के लिए भी, मालूम होता था कि अवकाश न मिलेगा। बहुत से लोगों की बहुविधा कामना-साधना की उपहार-राशि इस तरह ठसाठस एक के ऊपर एक भरी हुई नजर आती थी कि देखते ही ऐसा मालूम होता था कि इन अचेतन वस्तुओं के समान ही उनके अचेतन दाता भी मानो इस मकान के भीतर जरा-सी जगह के लिए ऐसी ही भीड़ करके परस्पर एक दूसरे के साथ ठेलमठेल संघर्ष कर रहे हैं। किन्तु, इस मकान के किसी भी कमरे में आवश्यकीय चीजों के अतिरिक्त एक भी फालतू चीज नज़र नहीं आई। और जो भी चीजें नजर आईं वे स्वयं गृहस्वामिनी के काम के लिए लाई गयी हैं, और उसकी निजी इच्छा और अभिरुचि को लाँघकर, और किसी की भी प्रलुब्ध अभिलाषा से अनधिकार-प्रवेश करके जगह छेके नहीं बैठी हैं। यह बात सहज में ही मालूम हो गयी। और भी एक बात ने मेरी दृष्टि को आकर्षित किया। इतनी सुप्रसिद्ध 'बाईजी' के घर में गाने-बजाने का कहीं कोई आयोजन भी नहीं है। इस कमरे, उस कमरे में घूमता हुआ दूसरी मंजिल के एक कोने के कमरे के सामने आकर मैं खड़ा हो गया। यह बाईजी का खुद का शयन-मन्दिर है, यह उसके भीतर झाँकते ही मालूम हो गया। परन्तु मेरी कल्पना के साथ इसका कितना अन्तर था। जो कुछ सोच रक्खा था, उसमें का कुछ भी नहीं था। मेज सफेद पत्थर की थी, दीवालें दूध की तरह सफेद चमचमा रही थीं। कमरे के एक किनारे एक छोटे से तख्त के ऊपर बिस्तर बिछे थे, एक लकड़ी की अरगनी पर कुछ वस्त्र टँके थे और उसके पीछे एक लोहे की आलमारी थी। और कहीं कुछ नहीं था। जूते पहिने हुए अन्दर प्रवेश करने में भी मानो मुझे एक तरह के संकोच का अनुभव हुआ, उन्हें चौखट के बाहर खोलकर मैंने भीतर प्रवेश किया। मालूम होता है, थकावट के कारण ही उसकी शय्या पर मैं जाकर बैठ गया था। यदि कमरे में और कोई वस्तु बैठने के लिए होती तो मैं उसी पर बैठता। सामने की ओर खुली हुई खिड़की को ढँके हुए एक बड़ा नीम का पेड़ था। उसी में से छन-छनकर हवा आ रही थी। उस ओर देखता हुआ मैं हठात् जैसे कुछ अन्यमनस्क-सा हो गया था। एक मीठी आवाज से चौंककर मैंने देखा, गुन-गुन गाना गाती-गाती प्यारी कमरे में घुस आई है। वह गंगाजी में स्नान करने गयी थी और अब वहाँ से लौटकर अपने कमरे में गीले कपड़े उतारने आई है। उसने इस ओर एक दफा भी नहीं देखा है। उसके सीधे अरगनी के पास जाकर सूखे वस्त्र पर हाथ डालते ही मैंने व्यक्त होकर आवाज दी, “घाट पर कपड़े लेकर क्यों नहीं जातीं?”

प्यारी ने चौंककर हँस दिया। बोली, “ऐं! चोर की तरह मेरे कमरे में घुसे बैठे हो? नहीं नहीं, बैठे रहो, बैठे रहो-अजाओ मत। मैं उस कमरे में से कपड़े बदल आती हूँ।” इतना कहकर वह हलके पैरों गरद की धोती हाथ में लेकर बाहर चली गयी।

पाँचेक मिनट के बाद वह प्रसन्न मुख से लौट आई और हँसकर बोली, “मेरे कमरे में तो कुछ भी नहीं है; तब क्या चुराने आए हो, बोलो तो? मुझे तो नहीं?” मैं बोला, “तुमने क्या मुझे ऐसा अकृतज्ञ समझ रक्खा है? तुमने मेरे लिए इतना किया, और अन्त में तुम्हारी ही चोरी करूँ, मैं इतना लोभी नहीं हूँ।”

प्यारी का मुँह मलीन हो गया। बोलते समय मैंने नहीं सोचा था कि इस बात से उसे व्यथा पहुँचेगी। उसे व्यथा पहुँचाने की न तो मेरी इच्छा ही थी, और न ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही था। खास तौर से तब जब कि मैंने दो-एक दिन में वहाँ से प्रस्थान करने का संकल्प कर लिया था। बिगड़ी हुई बात को किसी तरह बना लेने की गरज से मैंने जबर्दस्ती हँसकर कहा, “अपनी वस्तु की भी क्या कोई चोरी करने जाता है? तुममें इतनी भी बुद्धि नहीं है?”

किन्तु इतने सहज में उसे भुलाया न जा सका। उसने मलीन मुख से कहा, “तुम्हें और अधिक कृतज्ञ होने की जरूरत नहीं; दया करके तुमने जो उस समय खबर लगा दी, मेरे लिए वही बहुत है।”

उसके शुद्ध स्नात, प्रसन्न हँसते चेहरे को इस धूप से उज्ज्वल प्रभात-काल में ही मैंने म्लान कर दिया, यह देखकर हृदय में एक वेदना सी जाग उठी। उस थोड़ी-सी हँसी के भीतर जो एक माधुर्य था उसके नष्ट होते ही हानि सुस्पष्ट हो उठी। उसे वापिस लौटाने की आशा से मैं उसी क्षण अनुतप्त स्वर में बोल उठा, “लक्ष्मी, तुम्हारे निकट तो कुछ भी छिपा नहीं है- सब कुछ तो जानती हो। तुम वहाँ नहीं गयी होती तो मुझे उस धूल और रेती के ऊपर ही मर जाना पड़ता, कोई उतनी दूर जाकर एक दफा अस्पताल ले जाने की भी चेष्टा न करता। वह जो तुमने पत्र में लिखा था कि “सुख के दिनों में न सही तो दु:ख के दिनों में ही मुझे याद कर लेना” यह बात मुझे मेरी आयु बाकी थी इसीलिए याद आ गयी, यह मैं इस समय अच्छी तरह अनुभव कर रहा हूँ।”

“कर रहे हो?”

“निश्चय से।”

“तो फिर कहो कि मेरे ही लिए तुमने पुन: प्राण पाए हैं?”

“इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है।”

“तो क्या मैं उन पर दावा कर सकती हूँ, बोलो?”

“कर सकती हो। परन्तु मेरे प्राण इतने तुच्छ हैं कि उन पर तुम्हारा लोभ होना ही उचित नहीं है।”

प्यारी ने इतनी देर बाद कुछ हँसकर कहा, “फिर भी गनीमत है कि अपने मूल्य को इतने दिनों में तुमने समझ तो लिया।” किन्तु

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